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नवंबर 13, 2013

खुदा की कुदरत



ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं 
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं,

वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है 
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं,

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को 
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख्म-ए-जिगर को देखते हैं,

तेरे जवाहिर-ए-तर्फ़-ए-कुल (ताज में जड़े हीरे) को क्या देखें !
हम औज-ए-ताले-ए-लाल-ओ-गुहर (हीरे की किस्मत) को देखते हैं,      

सितंबर 28, 2013

वक़्त



मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त  
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ,

ज़ोफ़ (कमज़ोरी) में ताना-ए-अगयार (दुश्मन के ताने) का शिकवा क्या है 
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ,

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना 
क्या कसम है तेरे मिलने की, कि खा भी न सकूँ,   



अगस्त 14, 2013

मजनूँ



सरगश्तगी (परेशानी) में आलम-ए-हस्ती से यास (उदासी) है 
तस्कीन (उम्मीद) को दे नवेद (खुशखबरी) की मरने की आस है,

लेता नहीं मेरे दिल-ए-आवारा की खबर 
अब तक वो जानता है कि मेरे पास है,

कीजे बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म (गम की आग की ख़ुशी) कहाँ तलक ?
हर मू (वक़्त) मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास (अहसान मंद जुबान) है,

है वो गुरुर-ए-हुस्न से बेगाना-ए-वफ़ा (अनजान)
हरचंद उसके पास दिल-ए-हक़्शनास (इल्म से भरा) है,

पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब (चाँदनी रात) में शराब 
इस बलगमी मिजाज़ (ठंडी शख्सियत) को गर्मी ही रास है,

हर एक मकान को है मकीं (निवासी) से शरफ़ (शोहरत) 'असद'
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है,

जुलाई 18, 2013

महफ़िल

बाग़ पाकर ख़फ़कानी (पागल) यह डराता है मुझे 
साय-ए-शाख़-ए-ग़ुल (डाली की छाया) अफई (साँप) नज़र आता है मुझे,  

जौहर-ए-तेग (तलवार की तेज़ी) बसर चश्मा-ए-दीगर मालूम (आँखों देखी)
हूँ मैं वो सब्ज़ा (पेड़) की ज़हराब (जहर भरा पानी) उगाता है मुझे,

मुद्दआ महब-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल (दिल टूटने का तमाशा) है
आईनाखाने में कोई लिए जाता है मुझे,

नाला सरमाय-ए-यक आलम (आर्तनाद ही सच)आलम क़फ़-ए-ख़ाक (मुट्ठी भर ख़ाक)
आसमाँ बैज-ए-क़ुमरी (कुमरी पक्षी का अंडा) नज़र आता है मुझे 

जिंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे 
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे? 
   

जून 21, 2013

यूँ होता तो क्या होता

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता, 

हुआ जब गम से यूँ बेहिस, तो गम क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो जानू (घुटने) पर धरा होता,

हुई मुद्दत के मर गया 'ग़ालिब' पर याद आता है 
वो हर एक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता,

मई 25, 2013

परअफशाँ


अजब नशात (ख़ुशी) से जल्लाद के चले हैं हम आगे 
कि अपने साये से सर पाँव से है दो कदम आगे,

कज़ा (मौत) ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बाद-ए-उल्फत (इश्क़ का नशा)
फ़क़त 'ख़राब' लिखा बस न चल सका क़लम इससे आगे,

गम-ए-ज़माने ने झाड़ी नशात-ए-इश्क़ की मस्ती 
वर्ना हम भी उठाते थे लज्ज़त-ए-अलम (दुःख की ख़ुशी) आगे,

ख़ुदा के वास्ते दाद इस जूनून-ए-शौक की देना 
कि उसके दर पे पहुँचते हैं हम नामाबर (डाकिये) से आगे,  

ये उम्र भर जो परेशानियाँ उठाई हैं हमने 
तुम्हारे आइयो-ए-तुर्रह-ए-ख़म ब: ख़म (घुँघराले बालों की लटें) आगे,

दिल-ओ-जिगर में परअफशाँ (बेचैन) जो एक मौज-ए-खूँ (खून की लहर) है
हम अपने ज़ोम (गुरुर) में समझे हुए थे उसको दम (साँसे) आगे,

क़सम जनाज़े पे आने की मेरे खाते हैं 'ग़ालिब'
हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम आगे,   


अप्रैल 16, 2013

आतिश-ए-दोज़ख



कोई (कुछ) दिन गर ज़िन्दगानी और है
अपने जी (दिल) में हमने ठानी और है,

आतिश-ए-दोज़ख (दोज़ख की आग) में ये गर्मी कहाँ 
सोज़-ए-गम-ए-निहानी (अंदरूनी गम की जलन) और है,  

बारहा (कई बार) देखी हैं उनकी रंजिशें (दुश्मनी)
पर कुछ अब के सरगिरानी (नाराज़गी) और है,

दे के ख़त मुँह देखता है नामाबर (डाकिया)
कुछ तो पैगाम-ए-ज़बानी (मौखिक) और है,

काते-ए-अमार (उम्र काटते) हैं अक्सर नुज़ूम (तारे)
वो बला-ए-आसमानी (आसमानी तबाही) और है,

हो चुकीं हैं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम 
एक मर्ग-ए-नागहानी (अचानक मौत) और है,


मार्च 05, 2013

परदा



लागर (दुबला) इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा (जगह) दे मुझे
मेरा ज़िम्मा, देखकर गर कोई बतला दे मुझे,

क्या तअज्जुब है कि उसको देखकर आ जाए रहम 
वाँ (वहाँ) तलक कोई किसी हीले (बहाने) से पहुँचा दे मुझे,

मुँह न दिखलाएं, न सही ब अंदाज़-ए-इताब (गुस्से में) 
खोलकर परदा ज़रा आँखें ही दिखला दें मुझे,

याँ (यहाँ) तलक मेरी गिरफ़्तारी से वो ख़ुश है, कि मैं 
ज़ुल्फ़ गर बन जाऊँ तो शाने (कंधे) में उलझा दें मुझे,

- मिर्ज़ा ग़ालिब 

फ़रवरी 18, 2013

क़यामत



नहीं कि मुझको क़यामत का एतिकाद (यकीन) नहीं
शब-ए-फिराक (विरह कि रात) से रोज़-ए-जज़ा (क़यामत) ज्यादा  नहीं,

कोई कहे कि शब-ए-मह (चाँदनी रात) में क्या बुराई है
बला से आज अगर दिन को अब्र-ओ-बाद (सुहानी घटा) नहीं,

जो आऊँ सामने उनके तो मरहबा (स्वागत) न कहें 
जो जाऊँ वहाँ से कहीं को तो खैरबाद (विदाई) नहीं,

कभी जो याद भी आता हूँ मैं, तो कहते हैं कि 
आज बज़्म में कुछ फ़ित्न-ओ-फिसाद (लड़ाई-झगड़ा) नहीं,    
     
आलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब 
गदा-ए-कूचा-ए-मयखाना नामुराद (मयखाने का भिखारी) नहीं,

जहाँ में हैं गम-ओ-शाद बहम (साथ) हमे क्या काम 
दिया है हमको खुदा ने वो दिल कि शाद (खुश) नहीं,

तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यूँ करों 'ग़ालिब'
ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें कि याद नहीं,  
  

जनवरी 23, 2013

ये भी न सही


न हुई ग़र मेरे मरने से तसल्ली, न सही 
इम्तिहाँ और भी बाकि हों, तो ये भी न सही,

खार-ए-आलम-ए-हसरत-ए-दीदार (काँटों भरे रास्ते पर दीदार की हसरत) तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली (सब्र के गुलिस्ताँ के फूल) न सही,

मयपरस्तों ! (शराबियों) खुम-ए-मय (शराब का घूँट) मुँह से लगाये ही बनी 
एक दिन ग़र न हुआ बज़्म (महफ़िल) में साक़ी न सही 

नफ़स-ए-कैस (मजनूँ की साँस) की है चश्मा-ओ-चराग-ए-सहरा (रेगिस्तान का तालाब)
ग़र नहीं शमा-ए-सियाहखाना-ए-लैला (लैला के अँधेरे घर की शमा) न सही,

एक हंगामे पर मौक़ूफ़ (बंद) है घर की रौनक 
नौह-ए-गम (मातम) ही सही, नगमा-ए-शादी न सही,

न सिताइश (तारीफ) की तमन्ना, न सिले (इनाम) की परवाह
ग़र नहीं है मेरे अशआर (शेरों) में मानी (अर्थ) न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-खूबाँ (माशूक़ के साथ का ऐश्वर्य) ही गनीमत समझो
न हुई 'ग़ालिब', अगर उम्र-ए-तबीई (लम्बी उम्र) न सही     

जनवरी 08, 2013

क़हर



मैं उन्हें छेड़ूँ और,  कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिए होते,

क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो 
काश ! कि तुम मेरे लिए होते,

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी या रब ! कई दिए होते,

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते,