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जुलाई 19, 2012

उम्मीद



कोई उम्मीद बर (पूरी) नहीं आती 
कोई सूरत नज़र नहीं आती, 

मौत का एक दिन मु'अय्यन (मुक़र्रर) है 
नींद क्यूँ फिर रात भर नहीं आती, 

आगे (पहले) आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी 
अब किसी बात पर नहीं आती,

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद (इबादत की ताक़त)
पर तबीयत इधर नहीं आती,

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ 
वर्ना क्या बात कर नहीं आती, 

क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं 
मेरी आवाज़ गर नहीं आती, 

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता 
बू भी ए ! चारागर (हकीम) नहीं आती,

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी 
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती,

मरते हैं आरज़ू में मरने की 
मौत आती है पर नहीं आती,

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब' 
शर्म तुमको मगर नहीं आती, 

जुलाई 02, 2012

काफ़िर


कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से 
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से,

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है 
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से, 

वो बद-ख़ू (बदमिजाज़), और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी (लम्बी) 
इबारत मुख़्तसर (छोटी), क़ासिद (डाकिया) भी घबरा जाये है मुझ से,

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवानी (कमजोरी) है 
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से, 

सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है 
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से, 

तकल्लुफ़ बर-तरफ़ (साफगोई), नज़्ज़ारगी (देखने) में भी सही, लेकिन 
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से 

हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़ (इश्क की जुंग) में ज़ख़्मी 
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से,

क़यामत है कि होवे मुद्दई (दुश्मन) का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से